Shri Shri 1008 Shri Bhuvanishwar Muniji Falahari Maharaj Ji

धर्म केवल एक अभ्यास नहीं है, यह जीवन जीने का एक तरीका है।

सनातन धर्म के मूल सिद्धांत: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग

परम पूज्य श्री श्री 1008 मुनिजी फलाहारी महाराज जी

आप सभी को मेरा प्रणाम! आज हम सनातन धर्म के उन चार स्तंभों के बारे में बात करेंगे, जो किसी भी मनुष्य के जीवन को पूर्णता और सार्थकता प्रदान करते हैं। ये हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, जिन्हें ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ भी कहा जाता है। यह केवल चार शब्द नहीं हैं, बल्कि ये मानव जीवन के गहरे उद्देश्य और उसकी दिशा को दर्शाते हैं। आइए, मेरे साथ इन सिद्धांतों को गहराई से समझते हैं और जानते हैं कि आज के युग में भी ये कैसे हमारे जीवन का मार्गदर्शन कर सकते हैं।


1. धर्म: जीवन का आधार और कर्तव्य बोध

‘धर्म’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘धारण करना’। इसका मतलब है वो नियम और सिद्धांत जो व्यक्ति को सही मार्ग पर चलने और अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। धर्म केवल पूजा-पाठ या धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन शैली है।

मुनिजी समझाते हैं कि धर्म का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कर्तव्य बोध। एक पुत्र का अपने माता-पिता के प्रति धर्म, एक पिता का अपने परिवार के प्रति धर्म, एक नागरिक का अपने राष्ट्र के प्रति धर्म और एक मनुष्य का समस्त जीवों के प्रति धर्म। धर्म हमें सिखाता है कि हमें दूसरों के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसे सत्य और अहिंसा का पालन करना चाहिए, और कैसे एक नैतिक जीवन जीना चाहिए।

आज के समय में धर्म का महत्व: आधुनिक जीवन की भाग-दौड़ में जब हम अक्सर अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, तो धर्म हमें फिर से हमारी जिम्मेदारियों की याद दिलाता है। यह हमें नैतिक बल देता है और हमें सही और गलत के बीच का अंतर बताता है। धर्म के बिना जीवन दिशाहीन और उद्देश्यहीन हो जाता है। यह हमें सिखाता है कि हर कार्य को ईमानदारी और समर्पण से करना ही सबसे बड़ा धर्म है। जैसे, यदि आप कोई व्यवसाय करते हैं, तो ईमानदारी से व्यापार करना आपका धर्म है; यदि आप एक शिक्षक हैं, तो निस्वार्थ भाव से ज्ञान देना आपका धर्म है। यह धर्म ही है जो हमें इंसानियत सिखाता है।


2. अर्थ: जीवन की भौतिक आवश्यकताएँ और उसका सदुपयोग

‘अर्थ’ का अर्थ है धन, संपत्ति और भौतिक संसाधन। सनातन धर्म ने कभी भी धन कमाने को गलत नहीं माना, बल्कि इसे जीवन का एक आवश्यक पुरुषार्थ बताया है। लेकिन, यहाँ एक महत्वपूर्ण शर्त है – अर्थ का उपार्जन धर्म के मार्ग पर चलते हुए होना चाहिए।

मुनिजी कहते हैं कि धन कमाना ज़रूरी है क्योंकि इसके बिना हम अपने परिवार का पालन-पोषण नहीं कर सकते, समाज में योगदान नहीं दे सकते और अपनी भौतिक ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। धन की आवश्यकता से इनकार करना एक प्रकार की अव्यावहारिकता है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम धन कैसे कमाते हैं और उसका उपयोग कैसे करते हैं?

अर्थ का सही उपयोग: सनातन धर्म सिखाता है कि धन का उपयोग केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी होना चाहिए। दान-पुण्य, परोपकार, शिक्षा और चिकित्सा के कार्यों में योगदान देना अर्थ का सदुपयोग कहलाता है। यदि आप धन का उपयोग केवल भोग-विलास में करते हैं, तो वह आपके लिए बंधन बन जाता है। लेकिन यदि आप इसे धर्म के मार्ग पर खर्च करते हैं, तो वह मोक्ष की ओर बढ़ने में आपकी सहायता करता है। अर्थ के बिना हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भी नहीं निभा सकते।


3. काम: जीवन की इच्छाएँ, प्रेम और आनंद

‘काम’ का अर्थ है इच्छाएँ, कामनाएँ, प्रेम और आनंद। सनातन धर्म ने काम को भी जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना है। इसका संबंध केवल शारीरिक इच्छाओं से नहीं, बल्कि जीवन के सभी प्रकार के सुखों और आनंद से है।

मुनिजी समझाते हैं कि इच्छाओं का होना स्वाभाविक है। भोजन की इच्छा, प्रेम की इच्छा, एक सुंदर जीवन जीने की इच्छा – ये सब काम के अंतर्गत आते हैं। यदि इन इच्छाओं को दबा दिया जाए, तो मन में असंतोष और अशांति पैदा होती है। इसलिए, सनातन धर्म हमें सिखाता है कि इन इच्छाओं की पूर्ति धर्म और अर्थ की सीमा में रहकर करनी चाहिए।

काम का महत्व और संतुलन: काम का पुरुषार्थ हमें जीवन को सुंदर और आनंदमय बनाना सिखाता है। यह हमें प्रेम, संबंध और परिवार के महत्व को बताता है। लेकिन, जब हम काम के पीछे अंधी दौड़ लगाते हैं और धर्म व अर्थ के सिद्धांतों को भूल जाते हैं, तो यह हमारे लिए दुख और अशांति का कारण बन जाता है। काम का सही उपयोग तब होता है जब यह हमें दूसरों के प्रति प्रेम और करुणा सिखाता है, और जब हम जीवन के हर पल में आनंद और संतोष का अनुभव करते हैं। भोगवाद और वासना में अंतर है। भोगवाद में हम नियमों से मुक्त होकर सिर्फ अपनी इंद्रियों की तृप्ति के पीछे भागते हैं, जबकि काम में हम धर्म की सीमा में रहकर सुख का अनुभव करते हैं।


4. मोक्ष: जीवन का परम लक्ष्य और मुक्ति

‘मोक्ष’ इन सभी पुरुषार्थों का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है। ‘मोक्ष’ का अर्थ है जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्मज्ञान और परमानंद की प्राप्ति। यह जीवन का अंतिम सत्य है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को सांसारिक बंधनों, मोह और अहंकार से मुक्त कर लेता है।

मुनिजी कहते हैं कि मोक्ष कोई मृत्यु के बाद की स्थिति नहीं है, बल्कि यह इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है। जब हम धर्म के मार्ग पर चलते हुए, अर्थ का सदुपयोग करते हुए और काम की इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए जीवन जीते हैं, तो हम स्वाभाविक रूप से मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। मोक्ष का अर्थ है ‘मैं’ से मुक्ति और ‘हम’ या ‘ब्रह्म’ के साथ एकाकार होना।

मोक्ष की यात्रा: मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें अपनी चेतना को ऊपर उठाना पड़ता है। यह ध्यान, योग, भक्ति, ज्ञान और निस्वार्थ सेवा से संभव है। जब हम अपने अहंकार को छोड़ देते हैं, जब हम दूसरों की सेवा में आनंद पाते हैं और जब हम हर जीव में ईश्वर को देखते हैं, तो हम मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं। मोक्ष का मतलब संसार को छोड़ना नहीं है, बल्कि संसार में रहते हुए भी उससे अनासक्त रहना है। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान जैसे द्वंद्वों का हमारे मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।


चारों पुरुषार्थों का संतुलन ही सनातन जीवन है

कुल मिलाकर, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ये चारों एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना धर्म के अर्जित किया गया अर्थ अनैतिक हो सकता है, और बिना अर्थ के हम अपने कर्तव्यों (धर्म) का पालन नहीं कर सकते। बिना काम के जीवन नीरस हो जाता है, और जब इन तीनों का संतुलन हो, तभी हम मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

जैसा कि परम पूज्य मुनिजी फलाहारी महाराज जी समझाते हैं, इन चारों पुरुषार्थों का संतुलन ही सनातन जीवन है। यह हमें एक परिपूर्ण और सार्थक जीवन जीने का तरीका सिखाता है। यह हमें बताता है कि हमें आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों दुनिया में सफल होना चाहिए, लेकिन धर्म के मार्ग को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। यही जीवन का सच्चा आनंद और परम लक्ष्य है।

मुझे विश्वास है कि इन सिद्धांतों को समझकर आप भी अपने जीवन को एक नई दिशा देंगे और इसे अधिक सार्थक बनाएंगे।

जय माँ गायत्री। जय सनातन धर्म।